Post by vij on Nov 28, 2013 0:20:29 GMT 5.5
राजस्थान के कोटपुतली में दो लाख से भी कम आबादी है, लेकिन यहां से विधायक बनने की चाह ऐसी है कि 25 उम्मीदवार मैदान में हैं.
इलाक़े की चारों प्रमुख जातियों से उम्मीदवार खड़े हैं, जिनमें सबसे ज़्यादा संख्या वाले क़रीब 34,000 गुर्जरों में से ही 11 लोग मैदान में हैं.
यहां न तो कांग्रेस की पूछ है, न भाजपा की, पार्टी से बड़ी जाति बताई जाती है, लेकिन जाति के भीतर बढ़ी प्रतिस्पर्धा बताती है कि उससे भी बड़ा एक समीकरण है.
दिल्ली से क़रीब 166 किलोमीटर दूर कोटपुतली में ज़्यादतर लोग खेती करते हैं, पर अब सीमेंट और ट्रांसपोर्ट का काम बढ़ रहा है और राजनीति में दखल की चाहत को कई लोग उसी से जोड़ रहे हैं.
कोटपुतली में दो शैक्षणिक संस्थान चला रहे अशोक कुमार बंसल ने बीबीसी को बताया, "पिछले 8-9 सालों से दिल्ली और आसपास के इलाक़ों से जुड़ा सीमेंट और ट्रांसपोर्ट का काम हरियाणा की जगह यहां आ गया है. टोल टैक्स और व्यापार में बहुत फ़ायदा है और उसी में वर्चस्व बनाने के लिए राजनीति में शामिल होने की दौड़ लग गई है."
'नाम लो, काम हो जाता है'
रामस्वरूप कसाना इस बार भी चुनावी मैदान में उतरे हैं
पिछले विधानसभा चुनाव में भी 18 उम्मीदवार यहां से विधायकी के लिए लड़ रहे थे, और वोट इतना बंटा कि महज़ 14 प्रतिशत वोट पाने वाले रामस्वरूप कसाना जीत गए.
2008 में पहली बार चुनाव लड़ने और जीतने वाले कसाना की उम्र महज़ 32 साल है. राजनीति से ज़्यादा उनकी पूछ ट्रांसपोर्ट के काम से है और पांच साल के कार्यकाल में वह अपने बाहुबल के लिए खूब लोकप्रिय हुए हैं.
गुर्जर जाति के राजाराम इस साल पहली बार वोट देने वाले हैं, उनके मुताबिक़ युवा वर्ग में इससे पहले कोई गुर्जर नेता इतना लोकप्रिय नहीं हुआ.
राजाराम कहते हैं, "वो कुछ भी काम करने में झिझकते नहीं हैं, चाहे क़ानून हो या कुछ और. कोई भी काम हो, तो मैं उनका नाम ले सकता हूं और काम हो जाएगा."
राजाराम के मुताबिक गुर्जरों को अपने 'दबंग विधायक' से बहुत फ़ायदा हुआ है.
लेकिन राजाराम जो बात खुलकर कहते हैं, उनके किसान पिता उसे राजनीतिक साज़िश करार देते हैं. रामजी लाल के मुताबिक 'कसाना सरकार' ने सभी जातियों के लिए काम किया है.
क़द में लंबे-चौड़े और कोटपुतली शहर में ट्रैक्टर चलाने वाले यादव जाति के छोटे राम भी इसी गांव में रहते हैं.
छोटे राम बोले, "हमारा उम्मीदवार जीतता तो नहीं है, पर वोट पर्दे के पीछे होता है इसलिए हम अपनी जाति को ही वोट देते हैं. फिर बाहर आते हैं तो ऊंची जाति के लोग खड़े रहते हैं पूछने के लिए कि किसे वोट दिया. अगर हम गुर्जर न कहें तो मारपीट होती है."
'संकट में लोकतंत्र'
जाति के आधार पर वोटिंग के इस चलन को राजस्थान विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर नीरज गुप्ता लोकतंत्र के लिए संकट के दौर के रूप में देखते हैं.
जयपुर में उनके घर में हुई मुलाकात में उन्होंने कहा, “लोकतंत्र में चुनाव का यह तरीका सबसे अच्छा है, पर यह सफल इसलिए नहीं हो पा रहा क्योंकि हमारी जनता राजनीति के प्रति जागरूक नहीं है. वो डिपोलिटिसाइज़्ड है,”
प्रोफ़ेसर गुप्ता के मुताबिक़ ख़ासतौर पर युवा वर्ग में राजनीति के प्रति एक नकारात्मक सोच है, जिसके चलते वो न उससे जुड़ना चाहते हैं, न उसमें बदलाव लाने का कोई प्रयास करना चाहते हैं.
वो कहते हैं, “राजस्थान विश्वविद्यालय में छात्र राजनीति में युवा से मैं जब पूछता हूं कि उन्होंने 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' जैसी किताबें पढ़ीं हैं, या गांधी-नेहरू-अंबेडकर के लेख पढ़े हैं, तो जवाब न ही होता है. ज़ाहिर है ऐसे में दूरगामी दृष्टिकोण और सामाजिक हितप्रिय सोच नहीं बनेगी.”
राजस्थान और मध्य प्रदेश में जाति के आधार पर आम हो चुकी राजनीति को वह दिशाहीन और उम्मीदवारों के अपने हित आगे ले जाने वाली बताते हैं.
इलाक़े की चारों प्रमुख जातियों से उम्मीदवार खड़े हैं, जिनमें सबसे ज़्यादा संख्या वाले क़रीब 34,000 गुर्जरों में से ही 11 लोग मैदान में हैं.
यहां न तो कांग्रेस की पूछ है, न भाजपा की, पार्टी से बड़ी जाति बताई जाती है, लेकिन जाति के भीतर बढ़ी प्रतिस्पर्धा बताती है कि उससे भी बड़ा एक समीकरण है.
दिल्ली से क़रीब 166 किलोमीटर दूर कोटपुतली में ज़्यादतर लोग खेती करते हैं, पर अब सीमेंट और ट्रांसपोर्ट का काम बढ़ रहा है और राजनीति में दखल की चाहत को कई लोग उसी से जोड़ रहे हैं.
कोटपुतली में दो शैक्षणिक संस्थान चला रहे अशोक कुमार बंसल ने बीबीसी को बताया, "पिछले 8-9 सालों से दिल्ली और आसपास के इलाक़ों से जुड़ा सीमेंट और ट्रांसपोर्ट का काम हरियाणा की जगह यहां आ गया है. टोल टैक्स और व्यापार में बहुत फ़ायदा है और उसी में वर्चस्व बनाने के लिए राजनीति में शामिल होने की दौड़ लग गई है."
'नाम लो, काम हो जाता है'
रामस्वरूप कसाना इस बार भी चुनावी मैदान में उतरे हैं
पिछले विधानसभा चुनाव में भी 18 उम्मीदवार यहां से विधायकी के लिए लड़ रहे थे, और वोट इतना बंटा कि महज़ 14 प्रतिशत वोट पाने वाले रामस्वरूप कसाना जीत गए.
2008 में पहली बार चुनाव लड़ने और जीतने वाले कसाना की उम्र महज़ 32 साल है. राजनीति से ज़्यादा उनकी पूछ ट्रांसपोर्ट के काम से है और पांच साल के कार्यकाल में वह अपने बाहुबल के लिए खूब लोकप्रिय हुए हैं.
गुर्जर जाति के राजाराम इस साल पहली बार वोट देने वाले हैं, उनके मुताबिक़ युवा वर्ग में इससे पहले कोई गुर्जर नेता इतना लोकप्रिय नहीं हुआ.
राजाराम कहते हैं, "वो कुछ भी काम करने में झिझकते नहीं हैं, चाहे क़ानून हो या कुछ और. कोई भी काम हो, तो मैं उनका नाम ले सकता हूं और काम हो जाएगा."
राजाराम के मुताबिक गुर्जरों को अपने 'दबंग विधायक' से बहुत फ़ायदा हुआ है.
लेकिन राजाराम जो बात खुलकर कहते हैं, उनके किसान पिता उसे राजनीतिक साज़िश करार देते हैं. रामजी लाल के मुताबिक 'कसाना सरकार' ने सभी जातियों के लिए काम किया है.
क़द में लंबे-चौड़े और कोटपुतली शहर में ट्रैक्टर चलाने वाले यादव जाति के छोटे राम भी इसी गांव में रहते हैं.
छोटे राम बोले, "हमारा उम्मीदवार जीतता तो नहीं है, पर वोट पर्दे के पीछे होता है इसलिए हम अपनी जाति को ही वोट देते हैं. फिर बाहर आते हैं तो ऊंची जाति के लोग खड़े रहते हैं पूछने के लिए कि किसे वोट दिया. अगर हम गुर्जर न कहें तो मारपीट होती है."
'संकट में लोकतंत्र'
जाति के आधार पर वोटिंग के इस चलन को राजस्थान विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर नीरज गुप्ता लोकतंत्र के लिए संकट के दौर के रूप में देखते हैं.
जयपुर में उनके घर में हुई मुलाकात में उन्होंने कहा, “लोकतंत्र में चुनाव का यह तरीका सबसे अच्छा है, पर यह सफल इसलिए नहीं हो पा रहा क्योंकि हमारी जनता राजनीति के प्रति जागरूक नहीं है. वो डिपोलिटिसाइज़्ड है,”
प्रोफ़ेसर गुप्ता के मुताबिक़ ख़ासतौर पर युवा वर्ग में राजनीति के प्रति एक नकारात्मक सोच है, जिसके चलते वो न उससे जुड़ना चाहते हैं, न उसमें बदलाव लाने का कोई प्रयास करना चाहते हैं.
वो कहते हैं, “राजस्थान विश्वविद्यालय में छात्र राजनीति में युवा से मैं जब पूछता हूं कि उन्होंने 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' जैसी किताबें पढ़ीं हैं, या गांधी-नेहरू-अंबेडकर के लेख पढ़े हैं, तो जवाब न ही होता है. ज़ाहिर है ऐसे में दूरगामी दृष्टिकोण और सामाजिक हितप्रिय सोच नहीं बनेगी.”
राजस्थान और मध्य प्रदेश में जाति के आधार पर आम हो चुकी राजनीति को वह दिशाहीन और उम्मीदवारों के अपने हित आगे ले जाने वाली बताते हैं.