Post by vij on Jan 1, 2011 12:28:26 GMT 5.5
Reality at Pilupura
बुधवार को आन्दोलन का दसवां दिन था। समय दिन के दो बजे। कर्नल बैंसला आन्दोलन के मंच पर आते है। अपने साथियों से कुछ बात करते उससे पहले ही ‘बाईट’ वालों की धक्का मुक्की शुरू हो जाती है। माहौल में सरकार के बयानों को लकर सुबह से ही तनाव था। कर्नल को ताव आ जाता है।‘‘ मीडिया स्टॉप’’। इसी आवाज के साथ सन्नाटा पसर जाता है। कर्नल माइक को अपने हाथों में थामकर उपस्थित जनसमूह से संवाद करते है। आपको अगर मेरे ऊपर विश्वास नहीं है तो मुझसे स्पष्ट कह दो। हिंगा मुत्ता सब टांगे खींच रहे है। आप मेरी तौहीन करेगें तो में आपका काम कैसे कर पाऊंगा? भीड हाथ खडा करके कर्नल बैंसला में विश्वास से भर देती है।
तीन दिन की संवादहीनता के बाद सुबह के अखबार माहौल में गर्मी भर देते हैं। सरकार की ओर से भर्तियों को किसी भी कीमत पर न रोकने की बात सामने आ जाती है। साथ ही मुख्यमंत्री का ये बयान कि गुर्जरों को पता ही नहीं है कि उनकी मॉग क्या है? वो तो गलतफहमी में ट्रैक पर आकर बैठ गये है। उनके दो गुट है। हाईकोर्ट के फैसले में सरकार कुछ नहीं कर सकती।उसे छोडकर सब मॉगे मंजूर है। अखबारों में छपी इन सरकारी खबरों को लेकर आन्दोलनकारियों के बीच असमंजस की स्थिति थी। बड़े बूढों की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उन्होंने तो बस एक ही रट पकड रखी है।‘‘ कर्नल तू यहॉ से कहीं नहीं जायेगा। अब तक जब भी तू गया हमने ऑख बंद करके तुझ पर भरोसा किया। 72 लाल गये। कुछ भी तो नहीं मिला है। अब सब कुछ पटरी पर होगा’’
कर्नल बैंसला अजीब पशोपेस में है। सरकार आन्दोलन को अपने तरीके से हल्का लेकर खत्म करना चाहती है। कर्नल बैंसला पर संवादहीनता का आरोप लगातार जड़ा जा रहा है। झूठा भी नहीं कह सकते। कहीं कोई संवाद हो नहीं रहा है। कर्नल बातचीत करने की बात करते तो है पर कर नहीं पाते। जनसमूह सामने पटरी पर बात करने पर अडा है। कर्नल भी जान रहे है पटरी पर बात नहीं हो सकती। यही कारण था कि आधा दर्जन आईएएस अफसरों के दबाब के चलते कर्नल ने प्रतिनिधिमंडल बयाना भेजने को हरी झंडी दे दी। फिर क्या था। कुछ साथियों ने तो कुछ भीड ने माहौल को गरमा दिया। ‘‘कोई नहीं जायेगा’’। जायेगा तो पॉच प्रतिशत लेकर आयेगा। माहौल गरमा जाता है। माहौल की गर्मी की झाड मीडिया स्टॉप के रूप में सामने आती है। कर्नल बैंसला माइक थामकर जन समूह के सामने आक्रोश भरे अंदाज में एक बार फिर खुद के नेतृत्व को लेकर सवाल दाग देते है। मुझे बताओं में आपका नेता हूं या नहीं ? हमारे समाज में भी जयचंदों की कमी नहीं है जो सरकार के इशारों पर आन्दोलन को दफन करवा देना चाहते है। भीड की समझ में ज्यादा कुछ नहीं आता और वो एक बार फिर से हाथ खडा करके कर्नल बैंसला को नेता घोषित कर देती हैं।
पीलूपुरा में दो गुट है। दो दल है। प्रत्यक्ष देखकर ऐसा तो कुछ नहीं कहा जा सकता। हॉ ये सच है। दो राय जरूर है। जब भी कोई बात होती है। अब समाज एक राय नहीं बना पाता है। कर्नल को और उसके साथ रहे कुछ लोगों को नेता बनते देख लोगों का लग रहा है कि ये पहचान बनाने का अच्छा मौका है। ऐसे में वो जनसमूह के सामने आकर कुछ न कुछ दाल में तडका मार ही देते है। सुबह की चाय से लेकर शुरू हुई दिनचर्या आज ठीक नहीं थी। खाने में पेठा से लकर बूंदी, दाल रोटी, सब्जी पूडी और केले सब कुछ था। मगर सभी का स्वाद आज लोगों को फीका लग रहा था। इतना ही नहीं गीत, संगीत, ढोल थाप नगाडे और डीजे सब शांत थे। किसी कि समझ में नहीं आ रहा था कि आगे कैसे बढा जाये। इस बीच टोंक और बॉदीकुई के दो ट्रैकों के खाली हो जाने की खबर और बयाना में आन्दोलन समाप्ति की अफवाह ने लोगों को परेशान करके रख दिया। भीड़ से समर्थन ले लिया। खुद को एक बार फिर से समाज का एक मात्र नेता घोषित करवा लिया। इतने भर ने कर्नल बैंसला के तनाव को कम नहीं किया। अपनी गाडी की सीट पर जा बैठे कर्नल को सिगरेट पीने की तलब होती है। एक सिगरेट पीने के बाद खुद को आन्दोलन स्थल से दूर ले जाते है कर्नल। किसी को नहीं पता कहॉ गये। लोगों की माने तो उनके चले जाने की किसी को कोई खबर नहीं होती है।
मीडिया का पूरा जमावड़ा हैं। बिल भले ही ब्लेंक ले रहे हो। खाना पीना आन्दोलनकारियों के साथ ठीक ठाक हो जाता है। पीलूपुरा में जितनी चर्चा पॉच प्रतिशत आरक्षण शब्द की नहीं होती उतना ‘मीडिया वाले’ शब्द सुना जा सकता है। आन्दोलनकारियों ने दो बार धावा भी बोल दिया तो लाड भी खूब कर रहे है। कैप्टन भीमसिंह की नजर जब भी किसी अजनबी चेहरे पर पड़ती है तो वो अपना फोटो लेने के लिए जरूर कहते है। इतना ही नही खुद की काबिलियत और व्यवस्थाओं को लेकर की गई किलेबंदी को छापने की गुहार करने से बिल्कुल नहीं चूकते।
दैनिक भास्कर के राजस्थान संपादक नवनीत गुर्जर ने अपनी त्वरित टिपण्णी में आरक्षण को हिमालय कहॉ है। ये बात आन्दोलन कारियों को नहीं जच रही। कवि दुष्यंत की पक्तियों के सहारे लिखी टिपण्णी में नवनीत ने लिखा है। हिमालय का वह शिखर जहॉ काल्पनिक नौकरियॉ पड़ी बर्फ फॉक रही है उसका रास्ता कोई सरकारी गोमती नहीं बताती। हिमालय की अपनी मर्यादा है वह झुक नहीं सकता। सरकार और उसके तंत्र की अपनी आदत है वह राजनीति करने से बाज नहीं आ सकता। ऐसे में गुर्जरों के पास आरक्षण हासिल करने या नौकरियॉ पाने के लिए हिमालय पर चढने के अलावा चारा क्या है? अंत में लिखते है। ‘‘ हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये। इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये। इस बाबत जब एक बुजुर्ग से पूछा तो उसका जबाब था। ई गूजर कौ छोरा का कैवो चाहवे है हमारी तो कछू समझ में आवै नायै।
एक ओर ट्राली भरकर अलाव जलाने को आती लकडियॉ इशारा कर रही है कि लंबा चलेगा। तो वहीं माहौल की बेचैनी बताना चाह रही है कि अन्दखाने में सब कुछ बहुत ठीक नहीं चल रहा है। कर्नल के सामने भले ही भीड ने हाथ उठाकर एक बार उन्हें अपना नेता मान लिया हो। पर विश्वास कितना है ये सवाल पटरी पर अब खडा हो गया हैं। बात केवल पटरी पर होगी इतनी ही नहीं है। जब एक बुजुर्ग कहते है।‘‘ या कर्नल ते यों कह देऔ कि ई अग्रेजी में काउ ते बात नी करें। हमारी समझ में तौ हिन्दी आवै है और ईउ हिन्दी में बोलनौ चहिये। या नै अग्रेजी बोल कै अब तक का कर लीयौ। ये केवल एक बुजुर्ग का कहना भर नहीं हैं । कई और लोग भी ऐसी बाते करते देखे जा सकते है। इसमें केवल भाषा की ही बात हो ऐसा नहीं है। ये साफ विश्वास के घटते स्तर को बयान कर रहा है। आज गुर्जर समाज कर्नल बैंसला के पीछे खड़ जरूर नजा आ रहा है। मगर सर्दी से अधिक नेतृत्व के प्रति उभरा अविश्वास है कि संध्या होते होते पटरियॉ वीरान होने लग जाती है।
पूरे उत्तर भारत में पड़ रही कड़ाके की सर्दी पीलूपुरा पर भी है। सरकारी पटरियों पर बनी अस्थाई झौपडियों और उनके सहारे जलते अलावों से लोग गर्मी ले रहे है। दसवें दिन शुरू हुये कोहरे ने चिंता बढा दी हैं। इससे ज्यादा धुंध सरकारी बयानों ने पैदा कर रखी हैं। गुर्जर समाज 10 दिन क्या 10 हजार दिन पटरियों पर बैठा रहे। पटरी पर आरक्षण नहीं मिलेगा। और अभी हाल में तो कैसे भी नहीं। न चाहने वाली सरकार के पास कोर्ट की ढाल और आ गई है। गुर्जरों ने कभी भी अपनी लडाई व्यवस्थित लडी ही नहीं है। कहते है परिणाम की प्रतीक्षा किये बिना प्रेम तो किया जा सकता है आन्दोलन नहीं। परिणाम सामने है। एक बार फिर से वायदे होगें। उन्हें निभाने की कसमें खाई जायेगी। निभायेगा कोई नहीं। राजनीति बड़ी के साथ बुरी चीज भी है। यहॉ सब कुछ वोटों के तराजू में तोला जाता है। 2008 के विधानसभा, 2009 के लोकसभा चुनाबों में दोनो ही दलों ने गुर्जरों को खूब तोल लिया है। उनमें दम नहीं है। कर्नल बैसल चुनाव हार जाते है। इतना ही नहीं आन्दोलन में मुखर रहे प्रहलाद गुंजल, अतरसिंह भडाना गुर्जर बाहुल्य इलाकों में जमानत नहीं बचा पाते। तो फिर आरक्षण क्यों और किस बात का?
बुधवार को आन्दोलन का दसवां दिन था। समय दिन के दो बजे। कर्नल बैंसला आन्दोलन के मंच पर आते है। अपने साथियों से कुछ बात करते उससे पहले ही ‘बाईट’ वालों की धक्का मुक्की शुरू हो जाती है। माहौल में सरकार के बयानों को लकर सुबह से ही तनाव था। कर्नल को ताव आ जाता है।‘‘ मीडिया स्टॉप’’। इसी आवाज के साथ सन्नाटा पसर जाता है। कर्नल माइक को अपने हाथों में थामकर उपस्थित जनसमूह से संवाद करते है। आपको अगर मेरे ऊपर विश्वास नहीं है तो मुझसे स्पष्ट कह दो। हिंगा मुत्ता सब टांगे खींच रहे है। आप मेरी तौहीन करेगें तो में आपका काम कैसे कर पाऊंगा? भीड हाथ खडा करके कर्नल बैंसला में विश्वास से भर देती है।
तीन दिन की संवादहीनता के बाद सुबह के अखबार माहौल में गर्मी भर देते हैं। सरकार की ओर से भर्तियों को किसी भी कीमत पर न रोकने की बात सामने आ जाती है। साथ ही मुख्यमंत्री का ये बयान कि गुर्जरों को पता ही नहीं है कि उनकी मॉग क्या है? वो तो गलतफहमी में ट्रैक पर आकर बैठ गये है। उनके दो गुट है। हाईकोर्ट के फैसले में सरकार कुछ नहीं कर सकती।उसे छोडकर सब मॉगे मंजूर है। अखबारों में छपी इन सरकारी खबरों को लेकर आन्दोलनकारियों के बीच असमंजस की स्थिति थी। बड़े बूढों की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उन्होंने तो बस एक ही रट पकड रखी है।‘‘ कर्नल तू यहॉ से कहीं नहीं जायेगा। अब तक जब भी तू गया हमने ऑख बंद करके तुझ पर भरोसा किया। 72 लाल गये। कुछ भी तो नहीं मिला है। अब सब कुछ पटरी पर होगा’’
कर्नल बैंसला अजीब पशोपेस में है। सरकार आन्दोलन को अपने तरीके से हल्का लेकर खत्म करना चाहती है। कर्नल बैंसला पर संवादहीनता का आरोप लगातार जड़ा जा रहा है। झूठा भी नहीं कह सकते। कहीं कोई संवाद हो नहीं रहा है। कर्नल बातचीत करने की बात करते तो है पर कर नहीं पाते। जनसमूह सामने पटरी पर बात करने पर अडा है। कर्नल भी जान रहे है पटरी पर बात नहीं हो सकती। यही कारण था कि आधा दर्जन आईएएस अफसरों के दबाब के चलते कर्नल ने प्रतिनिधिमंडल बयाना भेजने को हरी झंडी दे दी। फिर क्या था। कुछ साथियों ने तो कुछ भीड ने माहौल को गरमा दिया। ‘‘कोई नहीं जायेगा’’। जायेगा तो पॉच प्रतिशत लेकर आयेगा। माहौल गरमा जाता है। माहौल की गर्मी की झाड मीडिया स्टॉप के रूप में सामने आती है। कर्नल बैंसला माइक थामकर जन समूह के सामने आक्रोश भरे अंदाज में एक बार फिर खुद के नेतृत्व को लेकर सवाल दाग देते है। मुझे बताओं में आपका नेता हूं या नहीं ? हमारे समाज में भी जयचंदों की कमी नहीं है जो सरकार के इशारों पर आन्दोलन को दफन करवा देना चाहते है। भीड की समझ में ज्यादा कुछ नहीं आता और वो एक बार फिर से हाथ खडा करके कर्नल बैंसला को नेता घोषित कर देती हैं।
पीलूपुरा में दो गुट है। दो दल है। प्रत्यक्ष देखकर ऐसा तो कुछ नहीं कहा जा सकता। हॉ ये सच है। दो राय जरूर है। जब भी कोई बात होती है। अब समाज एक राय नहीं बना पाता है। कर्नल को और उसके साथ रहे कुछ लोगों को नेता बनते देख लोगों का लग रहा है कि ये पहचान बनाने का अच्छा मौका है। ऐसे में वो जनसमूह के सामने आकर कुछ न कुछ दाल में तडका मार ही देते है। सुबह की चाय से लेकर शुरू हुई दिनचर्या आज ठीक नहीं थी। खाने में पेठा से लकर बूंदी, दाल रोटी, सब्जी पूडी और केले सब कुछ था। मगर सभी का स्वाद आज लोगों को फीका लग रहा था। इतना ही नहीं गीत, संगीत, ढोल थाप नगाडे और डीजे सब शांत थे। किसी कि समझ में नहीं आ रहा था कि आगे कैसे बढा जाये। इस बीच टोंक और बॉदीकुई के दो ट्रैकों के खाली हो जाने की खबर और बयाना में आन्दोलन समाप्ति की अफवाह ने लोगों को परेशान करके रख दिया। भीड़ से समर्थन ले लिया। खुद को एक बार फिर से समाज का एक मात्र नेता घोषित करवा लिया। इतने भर ने कर्नल बैंसला के तनाव को कम नहीं किया। अपनी गाडी की सीट पर जा बैठे कर्नल को सिगरेट पीने की तलब होती है। एक सिगरेट पीने के बाद खुद को आन्दोलन स्थल से दूर ले जाते है कर्नल। किसी को नहीं पता कहॉ गये। लोगों की माने तो उनके चले जाने की किसी को कोई खबर नहीं होती है।
मीडिया का पूरा जमावड़ा हैं। बिल भले ही ब्लेंक ले रहे हो। खाना पीना आन्दोलनकारियों के साथ ठीक ठाक हो जाता है। पीलूपुरा में जितनी चर्चा पॉच प्रतिशत आरक्षण शब्द की नहीं होती उतना ‘मीडिया वाले’ शब्द सुना जा सकता है। आन्दोलनकारियों ने दो बार धावा भी बोल दिया तो लाड भी खूब कर रहे है। कैप्टन भीमसिंह की नजर जब भी किसी अजनबी चेहरे पर पड़ती है तो वो अपना फोटो लेने के लिए जरूर कहते है। इतना ही नही खुद की काबिलियत और व्यवस्थाओं को लेकर की गई किलेबंदी को छापने की गुहार करने से बिल्कुल नहीं चूकते।
दैनिक भास्कर के राजस्थान संपादक नवनीत गुर्जर ने अपनी त्वरित टिपण्णी में आरक्षण को हिमालय कहॉ है। ये बात आन्दोलन कारियों को नहीं जच रही। कवि दुष्यंत की पक्तियों के सहारे लिखी टिपण्णी में नवनीत ने लिखा है। हिमालय का वह शिखर जहॉ काल्पनिक नौकरियॉ पड़ी बर्फ फॉक रही है उसका रास्ता कोई सरकारी गोमती नहीं बताती। हिमालय की अपनी मर्यादा है वह झुक नहीं सकता। सरकार और उसके तंत्र की अपनी आदत है वह राजनीति करने से बाज नहीं आ सकता। ऐसे में गुर्जरों के पास आरक्षण हासिल करने या नौकरियॉ पाने के लिए हिमालय पर चढने के अलावा चारा क्या है? अंत में लिखते है। ‘‘ हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये। इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये। इस बाबत जब एक बुजुर्ग से पूछा तो उसका जबाब था। ई गूजर कौ छोरा का कैवो चाहवे है हमारी तो कछू समझ में आवै नायै।
एक ओर ट्राली भरकर अलाव जलाने को आती लकडियॉ इशारा कर रही है कि लंबा चलेगा। तो वहीं माहौल की बेचैनी बताना चाह रही है कि अन्दखाने में सब कुछ बहुत ठीक नहीं चल रहा है। कर्नल के सामने भले ही भीड ने हाथ उठाकर एक बार उन्हें अपना नेता मान लिया हो। पर विश्वास कितना है ये सवाल पटरी पर अब खडा हो गया हैं। बात केवल पटरी पर होगी इतनी ही नहीं है। जब एक बुजुर्ग कहते है।‘‘ या कर्नल ते यों कह देऔ कि ई अग्रेजी में काउ ते बात नी करें। हमारी समझ में तौ हिन्दी आवै है और ईउ हिन्दी में बोलनौ चहिये। या नै अग्रेजी बोल कै अब तक का कर लीयौ। ये केवल एक बुजुर्ग का कहना भर नहीं हैं । कई और लोग भी ऐसी बाते करते देखे जा सकते है। इसमें केवल भाषा की ही बात हो ऐसा नहीं है। ये साफ विश्वास के घटते स्तर को बयान कर रहा है। आज गुर्जर समाज कर्नल बैंसला के पीछे खड़ जरूर नजा आ रहा है। मगर सर्दी से अधिक नेतृत्व के प्रति उभरा अविश्वास है कि संध्या होते होते पटरियॉ वीरान होने लग जाती है।
पूरे उत्तर भारत में पड़ रही कड़ाके की सर्दी पीलूपुरा पर भी है। सरकारी पटरियों पर बनी अस्थाई झौपडियों और उनके सहारे जलते अलावों से लोग गर्मी ले रहे है। दसवें दिन शुरू हुये कोहरे ने चिंता बढा दी हैं। इससे ज्यादा धुंध सरकारी बयानों ने पैदा कर रखी हैं। गुर्जर समाज 10 दिन क्या 10 हजार दिन पटरियों पर बैठा रहे। पटरी पर आरक्षण नहीं मिलेगा। और अभी हाल में तो कैसे भी नहीं। न चाहने वाली सरकार के पास कोर्ट की ढाल और आ गई है। गुर्जरों ने कभी भी अपनी लडाई व्यवस्थित लडी ही नहीं है। कहते है परिणाम की प्रतीक्षा किये बिना प्रेम तो किया जा सकता है आन्दोलन नहीं। परिणाम सामने है। एक बार फिर से वायदे होगें। उन्हें निभाने की कसमें खाई जायेगी। निभायेगा कोई नहीं। राजनीति बड़ी के साथ बुरी चीज भी है। यहॉ सब कुछ वोटों के तराजू में तोला जाता है। 2008 के विधानसभा, 2009 के लोकसभा चुनाबों में दोनो ही दलों ने गुर्जरों को खूब तोल लिया है। उनमें दम नहीं है। कर्नल बैसल चुनाव हार जाते है। इतना ही नहीं आन्दोलन में मुखर रहे प्रहलाद गुंजल, अतरसिंह भडाना गुर्जर बाहुल्य इलाकों में जमानत नहीं बचा पाते। तो फिर आरक्षण क्यों और किस बात का?