gurjar comunity is a warrior tiger community , no regimental certificate required from any politician or any state govt or central govt
gurjar community is a warrior community from 2000 years , they are traditional and have rich traditions which are fiercely guarded by the Gurjars of today also
see below the link about gurjar warriors by BBC , London
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www.bbc.co.uk/hindi/india/2011/01/110120_gujjar_dance_as.shtmlभारतीय उपमहाद्वीप में फैले गूजर समुदाय रण-कौशल पर आधारित, सदियों पुरानी अपनी नृत्य विधा को सहेज कर रखा है, चाहे इसका दायरा पूर्वी राजस्थान के कुछ ज़िलों में सिमट कर रह गया है.
गूजर परंपरा के अनुसार ये समुदाय अपनी इस नृत्य शैल्ली को युद्ध के मैदान में आज़माता रहा है. इतना ही नहीं, हाल के सालो में राजस्थान में गूजर जब भी आंदोलन के लिए जमा हुए तो पुलिस बल को अपनी इस विधा से ही छकाते रहे.
ये नृत्य हमें युद्ध के मैदान में एकता के सूत्र में पिरोता रहा है. इस नृत्य के भाव ऐसे हैं कि दुश्मन भयभीत होकर भाग खड़ा होता है. हमें हाल के आंदोलनों में भी इससे बड़ी मदद मिली है
कैप्टन हरप्रसाद तंवर
चंबल के बीहड़ और पर्वत की तलहटी में जमा होकर गूजर अपने मुंह से ऐसे स्वर निकालते हैं जैसे हथियारों से सुसज्जित कोई सेना युद्ध का आहवान कर रही हो.
क्या है गूजर रणनृत्य?
गूजर संस्कृति के जानकार डॉक्टर रूप सिंह इतिहास में झांक कर कहते हैं, "ये नृत्य युद्ध के भावों को नृत्य के ज़रिए पेश करने की कला है. जब विदेशी हमलावरों ने दर्रा ख़ैबर से हिदुस्तान पर हमला किया तब गूजर दो-दो हज़ार की संख्या में एकत्र हुए और नाच के ज़रिए उन्होंने ऐसे भाव पैदा किए कि दुश्मन भयभीत हो गया."
इस नृत्य की प्रक्रिया के बारे में बताते हुए डॉक्टर रूप सिंह कहते हैं, "हज़ारों की संख्या में जमा होकर नाच के साथ आवाज़ निकाली जाती है जिसे फटकार कहते हैं. जब सभी एक साथ नीचे लपकते हैं तो उसे लचक कहा जाता है. जब सभी एक साथ नीचे बैठ जाते हैं तो उसे मचक बोलते हैं .ये तीनों युद्ध नृत्य की क्रियाएँ मानी जाती हैं."
अब ये कला केवल राजस्थान के चंबल क्षेत्र में करौली, सवाई माधोपुर और भरतपुर जैसे ज़िलों तक सीमित होकर रह गई है.
हज़ारों की संख्या में जमा होकर नाच के साथ आवाज़ निकाली जाती है जिसे फटकार कहते हैं. जब सभी एक साथ नीचे लपकते हैं तो उसे लचक कहा जाता है. जब सभी एक साथ नीचे बैठ जाते हैं तो उसे मचक बोलते हैं .ये तीनों युद्ध नृत्य की क्रियाएँ मानी जाती हैं
डॉक्टर रूप सिंह
हाल के गूजर आंदोलन में भाग लेते रहे कैप्टन हरप्रसाद तंवर कहते हैं, "ये नृत्य हमें युद्ध के मैदान में एकता के सूत्र में पिरोता रहा है. इस नृत्य के भाव ऐसे हैं कि दुश्मन भयभीत होकर भाग खड़ा होता है. हमें हाल के आंदोलनों में भी इससे बड़ी मदद मिली है."
एक अन्य सेवानिवृत्त अधिकारी कैप्टन भीम सिंह गूजर कहते हैं, "हम तो ये मानते हैं कि ये आदिकाल से चला आ रहा है. यह एक रणकौशल है. ये हमें शौर्य भाव से भरता है क्योंकि जो पंक्तियाँ ऊचे-ऊचे दोहराई जाती हैं तो हमारे पुरखों के गौरव गान को बयान करती हैं."
पेशावर के जयपाल खटाना का ज़िक्र
आश्चर्य है कि गूजर कहते हैं इस कला की नुमाइश के लिए मई और जून के तपिश भरे महीने बेहतर माने जाते हैं.
इतिहास में दर्ज कि पेशावर में जब गूजर राजा जयपाल खटाना की हुकूमत थी और महमूद ग़ज़नी ने हमला किया तब गूजरों ने जमा होकर इस युद्ध कौशल का प्रदर्शन किया था
डॉक्टर रूप सिंह
डॉक्टर रूप सिंह के मुताबिक, "इतिहास में दर्ज कि पेशावर में जब गूजर राजा जयपाल खटाना की हुकूमत थी और महमूद ग़ज़नी ने हमला किया तब गूजरों ने जमा होकर इस युद्ध कौशल का प्रदर्शन किया था."
जम्मू-कश्मीर के गूजर देश चेरीटेबल ट्रस्ट के अध्यक्ष मसूद चौधरी कहते हैं, "इस नृत्य में गीत संगीत है, युद्ध की गर्जना है, कहीं कोलाहल है तो कहीं गायन में कर्णप्रिय सुर भी...."
गूजर नेता कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला कहते हैं - "पेशावर के राजा जयपाल खटाना के पास एक ऐसी ब्रिगेड थी जो ध्वनि के ज़रिेए दुश्मन को डराती थी. इसमें बिना हथियारों के जंग का माहौल जीवंत किया जाता था. मुझे इस कला पर फक्र है, मैंने खुद भी इसमें भाग लिया है."